12 Bhavna se
Wednesday, November 20, 2024
Thursday, May 16, 2024
प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान् को मेरा नमस्कार
पूर्व पल्य के अंत में
लुप्त हुआ जो ज्ञान
प्रगटाया आदिनाथ ने
वह आदिज्ञान महान
१४ वे तीर्थंकर अनंतनाथ भगवान को मेरा नमस्कार
अनंत काल से,भटक रहा |
भव अनंत मे हे नाथ ||
अनंतनाथ के चरण पा |
बनूँ अनंत हे नाथ ||
- अमित सिंघई
Monday, May 6, 2013
नमस्ते नमस्ते
नमस्ते नमस्ते, नमस्ते नमस्ते, नमस्ते नमस्ते ,नमस्ते नमस्ते।
गुरुदेव तुम को नमस्ते नमस्ते , गुरुदेव तुम को नमस्ते नमस्ते ॥ 1॥
तुम्हारे चरण मे जो लग जाये रहने , वो पा जाये मुक्ति फ़िर हँसते हँसते ।
गुरुदेव तुम को नमस्ते नमस्ते , गुरुदेव तुम को नमस्ते नमस्ते ॥2॥
तुम्हारे चरण के परस मे जो आये वो मिथ्या को तज के सम्यक को पाये ।
तुम्हीं ने तो खोले हैं आगम के दस्ते , तुम्हीं ने बताया किसे देव कहते ॥3॥
तुम्हारे चरण में मिले ज्ञान पानी । तुम्हारे चरण में कटे जिंदगानी ।
कई जन्मो से खोती आई है सुधियां। भोगों के पथ पर तरसते तरसते ॥ 4॥
चिदानंद तुम हो दयानन्द तुम हो । हमारे लिए तो श्री कुन्दकुन्द हो ।
उपदेश देकर निकाला है हम को । मोह कीच माया में फंसते फंसते ॥5॥
नहीं पार पाया किसी ने तुम्हारा । जो आया शरण में वो पाए सहारा ।
विमल सिन्धु गहरा हूँ छोटी नदी सा । मिला लो स्वयं में अहिस्ते अहिस्ते ॥6॥
लहराता उपवन है पुष्प धनी का। जीवन समर्पित है नन्ही कली का।
करता हुँ विनती हे पुष्पदंत सागर । खिला लो कली को महकते महकते ॥7॥
गुरुदेव तुम को नमस्ते नमस्ते । गुरुदेव तुम को नमस्ते नमस्ते ।
गुरुदेव तुम को नमस्ते नमस्ते । गुरुदेव तुम को नमस्ते नमस्ते ॥8॥
गुरुवर ऐसा वर दो
आत्म शक्ति से ओत प्रोत विद्या और ज्ञान से भर दो , गुरुवर ऐसा वर दो
आत्म शक्ति से ओत प्रोत विद्या और ज्ञान से भर दो , गुरुवर ऐसा वर दो
रहे मनोबल अचल मेरु सा तनिक नहीं घबराऊँ, प्रबल आँधियां रोक सके ना आगे बढ़ता जाऊँ
रहे मनोबल अचल मेरु सा तनिक नहीं घबराऊँ, प्रबल आँधियां रोक सके ना आगे बढ़ता जाऊँ
उड़ जाऊँ निर्बाध लक्ष्य तक गुरुवर ऐसे पर दो , गुरुवर ऐसा वर दो
है अज्ञान निशा अंधियारी तुम दिनकर बन आओ, ज्ञान और भक्ति की शिक्षा बालक कॊ समझाओ
है अज्ञान निशा अंधियारी तुम दिनकर बन आओ, ज्ञान और भक्ति की शिक्षा बालक कॊ समझाओ
विनय भरा गुरु ज्ञान मुझे दो मन ज्योतिर्मय कर दो ,गुरुवर ऐसा वर दो
सुमति सुजस सुख सम्पति दाता हे गुरुवर अपना लो ,संत समागम चाहूँ मै मुझे अपने पास बिठा लो
सुमति सुजस सुख सम्पति दाता हे गुरुवर अपना लो ,संत समागम चाहूँ मै मुझे अपने पास बिठा लो
जैसा भी हूँ तेरा ही हूँ हाथ दया का धर दो ,गुरुवर ऐसा वर दो
मैं अबोध शिशु हूँ गुरु तेरा दोष ध्यान मत देना, सब भक्तों के साथ मुझे भी शरण चरण की देना
मैं अबोध शिशु हूँ गुरु तेरा दोष ध्यान मत देना , सब भक्तों के साथ मुझे भी शरण चरण की देना
हॆ गुरुवर सुख ज्ञान अभय और मन भक्ति से भर दो , गुरुवर ऐसा वर दो
उड़ जाऊँ निर्बाध लक्ष्य तक गुरुवर ऐसे पर दो , गुरुवर ऐसा वर दो
विनय भरा गुरु ज्ञान मुझे दो मन ज्योतिर्मय कर दो , गुरुवर ऐसा वर दो
जैसा भी हूँ तेरा ही हूँ हाथ दया का धर दो गुरुवर ऐसा वर दो
Saturday, August 4, 2012
अटल जी
मौत से ठन गई!
जूझने का मेरा इरादा न था,मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?
तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।
मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।
प्यार इतना परायों से मुझको मिला,न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।
आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।
पार पाने का क़ायम मगर हौसला,देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई।
मौत से ठन गई।
सोती शान्त सरोवर पर उस अमल कमलिनी-दल में -
सौंदर्य-गर्विता-सरिता के अति विस्तृत वक्षस्थल में -
धीर-वीर गम्भीर शिखर पर हिमगिरि-अटल-अचल में -
उत्ताल तरंगाघात-प्रलय घनगर्जन-जलधि-प्रबल में -
क्षिति में जल में नभ में अनिल-अनल में -
सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा 'चुप चुप चुप'
है गूँज रहा सब कहीं -
ज्ञान और विज्ञान .......
आने वाली पीढ़ियों को मंजिलो तक लायेंगे
नाज़ होगा सारी दुनिया को हमारी खोज पर
और हम अगली सदी के रहनुमा कहलायेंगे
Saturday, November 5, 2011
पार्श्वनाथ स्तोत्र
मुनीन्द्रं गणेन्द्रं नमो जोडि हाथं । नमो देव देवं सदापार्श्वनाथ। ॥1॥
गजेन्द्रं मृगेन्द्रं गह्यो तू छुड़ावै । महा आगतैं नागतैं तु बचावै॥
महावीरतैं युध्द में तू जितावै । महा रोगतैं बंधतैं तू छुड़ावै ॥2॥
दु:खी दु:खहर्ता सुखी सुक्खकर्ता । सदा सेवकों को महानन्द भर्ता ।
हरे यक्ष राक्षस भूतं पिशाचं । विषं डांकिनी विघ्न के भय अवाचं ॥3॥
दरिद्रीन को द्रव्यकेदान दीने । अपुत्रीन को तू भलेपुत्र कीने ॥
महासंकटो सेनिकारै विधाता । सबै सम्पदा सर्व को देहि दाता ॥4॥
महाचोर को वज्रको भय निवारैं । महापौन के पुँजतै तू उबारैं ॥
महाक्रोध की अग्नि को मेघ धारा । महा लाभ-शैलेश को वज्र भारा ॥5॥
महा मोह अंधेरेकोज्ञान भानं । महा कर्म कांतार को दौ प्रधानं ॥
किये नाग नागिन अधेलोक स्वामी।हरयो मान तू दैत्य को हो अकामी ॥6॥
तुही कल्पवृक्षं तुही काम धेनं । तुही दिव्य चिंतामणी नाग एनं ॥
पुश नर्क के दु:खतैं तू छुडावैं । महास्वर्गतैं मुक्ति मैं तू बसावै ॥7॥
करै लोह को हेम पाषाण नामी । रटै नामसौं क्यों न हो मोक्षगामी ॥
करै सेव ताकी करैं देव सेवा । सुन बैन सोही लहै ज्ञान मेवा ॥8॥
जपै जाप ताको नहीं पाप लागैं । धरे ध्यानताके सबै दोष भागै ॥
बिना तोहि जाने धरे भव घनेरे । तुम्हारी कृपा तैं सरैं काज मेरे ॥9॥
:: दोहा ::
गणधर इन्द्र न कर सकैं, तुम विनती भगवान ।
'द्यानत' प्रीति निहारकैं, कीजै आप समान ॥
Sunday, July 11, 2010
Monday, January 11, 2010
कौशल त्रिपाठी जो कि मेरे मित्र हैं
पर आज भी अकृलान्त हूं ,
कोटि कोटि कल्पों से करता
स्वयं का अनुसंधान हूं ।
श्रेष्ठता का चरम मैने छुआ है ।
तिमिर के तानूर से तारने को
तिमिरारि सा दीप्यमान हूं ॥
Thursday, January 7, 2010
भारत को स्वर्ग बना दो
ज्ञान का दीप जला दो
करुना निधान भगवान् मेरे
भारत को स्वर्ग बना दो
नव प्रभात फिर महक उठे
मेरे भारत की फुलवारी
सब हो एक समान जगत में
कोई न रहे भिखारी
एक बार माँ वसुंधरा को
नव श्रृंगार करा दो
करुना निधान भगवान् मेरे
भारत को स्वर्ग बना दो
मानवता के मनन मन्दिर में
ज्ञान का दीप जला दो
करुना निधान भगवान् मेरे
भारत को स्वर्ग बना दो
करुना निधान भगवान् मेरे
भारत को स्वर्ग बना दो
हम करें राष्ट्र आराधन
हम करें राष्ट्र आराधन
हम करें राष्ट्र आराधन.. आराधन
तन से, मन से, धन से
तन मन धन जीवन से
हम करें राष्ट्र आराधन
हम करें राष्ट्र आराधन.. आराधन
अंतर से, मुख से, कृति से
निश्चल हो निर्मल मति से
श्रद्धा से मस्तक नत से
हम करें राष्ट्र अभिवादन
हम करें राष्ट्र आराधन.. आराधन
अपने हँसते शैशव से
अपने खिलते यौवन से
प्रौढ़ता पूर्ण जीवन से
हम करें राष्ट्र का अर्चन
हम करें राष्ट्र आराधन.. आराधन
अपने अतीत को पढ़कर
अपना इतिहास उलट कर
अपना भवितव्य समझ कर
हम करें राष्ट्र का चिंतन
हम करें राष्ट्र आराधन.. आराधन
Sunday, November 29, 2009
रामधरी सिंह दिनकर जी
बजती कहीं बांसुरी तेरी , बस , इतना ही भान हमें
शिखरों से ऊपर उठने देती न हाय , लघुता अपनी
मिटटी पर झुकाने देता है , देव नहीं अभिमान हमें
Friday, June 12, 2009
तीर्थंकर स्तुति से
Monday, June 8, 2009
हम बहता जल पीने वाले ...
मर जाऍंगे भूखे-प्यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से,
स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले।
ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंचखोल
चुगते तारक-अनार के दाने।
होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सॉंसों की डोरी।
नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं, तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालों।
Friday, May 29, 2009
Shri Gopal singh Nepali
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता, मैं हो न सका
देखा जग ने टोपी बदली,तो मन बदला, महिमा बदली
पर ध्वजा बदलने से न यहाँ, मन-मंदिर की प्रतिमा बदली
मेरे नयनों का श्याम रंग जीवन भर कोई, धो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता, मैं हो न सका
जो चाहा करता चला सदा प्रस्तावों को मैं ,ढो न सका
चाहे जिस दल में मैं जाऊँ इतना सस्ता, मैं हो न सका
दीवारों के प्रस्तावक थे
पर दीवारों से घिरते थे
व्यापारी की ज़ंजीरों से
आज़ाद बने वे फिरते थे
ऐसों से घिरा जनम भर मैं सुखशय्या पर भी, सो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता, मैं हो न सका
Monday, May 25, 2009
solah karan pooja se
Wednesday, May 20, 2009
कौशल त्रिपाठी : जो कि मेरे मित्र हैं :-)
Tuesday, May 19, 2009
maithilisharan gupt: matribhoomi
Saturday, May 2, 2009
siddh pooja se
Sunday, April 26, 2009
दिनकरजी
हम दे चुके लहू हैं , तू देवता िवभा दे |
अपने अनलिविशख से आकाश जगमगा दे ।
प्यारे स्वदेश के िहत वरदान माँगता हूँ |
तेरी दया िवपद् में , भगवान माँगता हूँ |
Friday, April 24, 2009
ये पंक्तियाँ मेने लिखी बीमारी में
आज जीवन को कुछ और सोचता हूँ
कोई उत्तर नहीं पाता हूँ
फिर से बेचैन हो जाता हूँ
लेट जाता हूँ , शिथिलता में , पर नींद नहीं आती
मन कहता है कर्म कर और आलस्यता चली जाती
तिमिर है , एकांत है शरीर भी अस्वस्थ है
किन्तु मस्तिष्क वाह रे तू उतना ही सजग है
हाथ नहीं उठ रहे, पैर नहीं चल रहे
मन में नए विचारो के धागे जाल बुन रहे
कुटुंब-समाज-कर्म के दायित्व मुझे अशांत कर रहे
धर्म के सन्देश वहीं मुझे शांत कर रहे
तथा ताप और शिथिलता परेशान कर रहे
विचित्र अवस्था है , लिखने बैठा हूँ
जीवन को समझने का प्रयास करता हूँ
कोई उत्तर नहीं पाता हूँ
फिर से बेचैन हो जाता हूँ
माखनलाल चतुर्वेदी
रानी रजनी पल-पल , दीपक से आरती उतारे
भवन भवन तेरा मंदिर है , स्वर है श्रम की वाणी
राज रही कालरात्रि को उज्जवल कर कल्याणी
तू ही जगत की जय है,तू है बुद्धिमयी वरदात्री
तू धात्री , तू भू-नभ गात्री, सूझ बूझ निर्मात्री
Friday, April 17, 2009
सुरपति ले अपने शीश , जगत के ईश :: जन्माभिषेक आरती
गए गिरिराजा, जा पांडुक शिला विराजा ||
शिल्पी कुबेर वहाँ आकर के , क्षीरोदधि का जल लाकर के |
रचिपेडी ले आए सागर का जल ताजा , तब नहुन कियो जिनराजा || सुरपति ..... ||
नीलम पन्ना वैडुरय मणि , कलशा ले करके देवगणी |
एक सहस आठ कलशा ले करके नभराजा , फ़िर नहुन कियो जिनराजा || सुरपति ..... ||
दसु योजन गहराई वाले , चहुँ योजन चौडाई वाले |
एक योजन मुख के कलश धुरे जिन माथा , नही जरा डिगे शिशु नाथा || सुरपति ..... ||
सौधर्म इन्द्र अरु इशाना , प्रभु कलश करे धर युगपाना
अरु सनंत कुमार, महेंद्र दोए सुरराजा सिर चंवर धुरावे साजा || सुरपति ..... ||
फ़िर शेष दिविज जयकार किया , इन्द्राणी प्रभु तन पोंछ लिया
शुभ तिलक दृगंजन शचि कियो शिशुराजा, नानाभुषण से साजा || सुरपति ..... ||
ऐरावत पुनि प्रभु लाकर के , माता की गोद बिठा करके
अति अचरज तांडव नृत्य कियो दिविराजा , स्तुति करके जिनराजा|| सुरपति ..... ||
चाहत मन मुन्ना लाल शरण , वसु करम जाल दुःख दूर करन
शुभ आशीषमय वरदान देहु जिनराजा , मम नहुन होए गिरिराजा || सुरपति ..... ||
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गिरिराजा == सुमेरु पर्वत , सुरराजा == दिविराजा == इन्द्र , रचि/शचि == इन्द्र की पत्नी [not sure ]
क्षीरोदधि == वो समुद्र जहा पानी नहीं क्षीर होता है , पुनि == पीठ
Thursday, April 16, 2009
कृष्ण की चेतावनी :: रामधारी सिंह दिनकर जी
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।
‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
प्यारे भारत देश से कुछ पद्य :: माखनलाल चतुर्वेदी
तेरे वन जग उठे पवन से हरित इरादे प्यारे!
राम-कृष्ण के लीलालय में उठे बुद्ध की वाणी
काबा से कैलाश तलक उमड़ी कविता कल्याणी
बातें करे दिनेश प्यारे भारत देश।।
वह बज उठी बासुँरी यमुना तट से धीरे-धीरे
उठ आई यह भरत-मेदिनी, शीतल मन्द समीरे
बोल रहा इतिहास, देश सोये रहस्य है खोल रहा
जय प्रयत्न, जिन पर आन्दोलित-जग हँस-हँस जय बोल रहा,
जय-जय अमित अशेष , प्यारे भारत देश।।
हम दीवानों की क्या हस्ती -----भगवतीचरण वर्मा
स्वछन्द लुटाकर प्यार चले |
हम एक निशानी उर पर ,
ले असफलता का भार चले|
हम मान रहित, अपमान रहित,
जी भर कर खुलकर खेल चुके |
हम हँसते हँसते आज यहाँ ,
प्राणों की बाजी हार चले |
अब अपना और पराया क्या,
आबाद रहें रुकने वाले
हम स्वयं बंधे थे, और स्वयं,
हम अपने बन्धन तोड़ चले
Wednesday, April 15, 2009
आकस्मिक पंक्तियाँ
उंगलियाँ हमारी हैं , शिल्प तुम्ही हो
लेखनी हमारी है , मस्तिष्क में प्रवाहित तुम्ही हो
कर्म हमारा है, सौभाग्य तुम्ही हो
मात्र प्रदर्शन हमारा है , प्रेरणा तुम्ही हो
जीवन हमारा है , ख़ुशी तुम्ही हो
Monday, April 13, 2009
कुछ और भी दूं
चाहता हूं मातॄ - भू तुझको अभी कुछ और भी दूं ||
मां तुम्हारा ऋण बहुत है , मै अकिंचन ,
किन्तु इतना कर रहा फ़िर भी निवेदन |
थाल मे सजा कर लाऊं भाल जब ,
स्वीकार कर लेना दयाकर यह समर्पण |
गान अर्पित , प्राण अर्पित रक्त का कण कण समर्पित ,
मन समर्पित , तन समर्पित और यह जीवन समर्पित ||
Sunday, April 12, 2009
भक्तामर स्त्रोत्र से
भूमंडल के निर्मल भूषण, आदि जिनेश्वर तुम्हें नमन !!
हो त्रिभुवन के अखिलेश्वर ,प्रभु तुमको बारम्बार नमन !!!
भवसागर के शोषक पोषक , भव्य जनों के तुम्हें नमन !!!!
नौका विहार :: सुमित्रा नंदन पन्त
अपलक अनंत नीरव भूतल
सैकत शैय्या पर दुग्ध धवल
तन्वंगी गंगा ग्रीष्म विरल
लेती है श्रांत क्लांत निश्छल
तापस बाला गंगा निर्मल
शशि मुख से दीपित मृदु करतल
लहरे उर पर कोमल कन्तुल
साडी की सिकुडन सी जिस पर
शशि की रेशमा विभा से भर
सिमटी है वर्तुल मृदुल लहर
अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध
जी तड़प कर के हमारा रह गया
क्या गया मोती किसी का है बिखर
या हुआ पैदा रतन कोई नया ?
Sunday, April 5, 2009
siddha pooja se
अतएव निकट नहीं आ पाते कर्मो के कीट पतंग अरे
यह धूप सुरभि निर्झरनी मेरा पर्यावरण विशुद्ध हुआ
छट गया योग निद्रा में प्रभु सर्वांग अमीय है बरस रहा
Friday, April 3, 2009
जय जय हे त्रिशलानंदन....
धनपति ने पंद्रह माह वहाँ , रत्नों का कोष लुटाया रे
क्या कोई रत्नों को मांगे ,रत्नत्रय ज्योत के आगे
सारे रत्न लजा रहे , महावीरा हम तेरी आरती गा रहे
[रत्नत्रय = सम्यक दर्शन , सम्यक ज्ञान , सम्यक चारित्र ]
Saturday, March 28, 2009
ईशावास्य उपनिषद
जो भोग विषयासक्त, वे बहु जन्म लेते, निम्न हैं।
पुनरापि जनम मरण के दुख से, दुखित वे अतिशय रहें,
जग, जन्म, दुख, दारुण, व्यथा, व्याकुल, व्यथित होकर सहें॥
षय क्षणिक, क्षण, क्षय माण, क्षण भंगुर जगत से विरक्ति हो,
यही ज्ञान का है यथार्थ रूप कि, ब्रह्म से बस भक्ति हो।
कर्तव्य कर्म प्रधान, पहल की भावना, निःशेष हो,
यही धीर पुरुषों के वचन, यही कर्म रूप विशेष हो
Thursday, March 26, 2009
Tandav Stotra :: Great Ravan
स्फुरद्िदगन्तसन्तितप्रमोदमानमानसे |
कृपाकटाक्षधोरणीिनरुद्धदुर्धरापिद
क्विचद्िदगम्बरे मनो िवनोदमेतु वस्तुिन
वरदान माँगूँगा नहीं :: शिवमंगल सिंह सुमन
तिल-तिल मिटूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।'
लघुता न अब मेरी छुओ, तुम हो महान बने रहो
अपने हृदय की वेदना मैं व्यर्थ त्यागूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।
चाहे हृदय को ताप दो, चाहे मुझे अभिशप दो
कुछ भी करो कर्तव्य पथ से किंतु भागूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।
Tuesday, March 24, 2009
हिमाद्रि तुंग शृंग से :: जयशंकर प्रसाद
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती
अर्मत्य वीर पुत्र हो दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो
प्रशस्त पुण्य पंथ है बढ़े चलो बढ़े चलो!
असंख्य कीर्ति रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के रुको न शूर साहसी
अराति सैन्य सिंधु में सुबाड़वाग्नि से जलो
प्रवीर हो जयी बनो बढ़े चलो बढ़े चलो!
सतपुड़ा के जंगल :: भवानी प्रसाद मिश्र
मकड़ियों के जाल मुँह पर,
और सिर के बाल मुँह पर,
मच्छरों के दंश वाले,
दाग काले-लाल मुँह पर,
वात झंझा वहन करते,
चलो इतना सहन करते,
कष्ट से ये सने जंगल,
नींद में डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल।
झाड़ ऊँचे और नीचे
चुप खड़े हैं आँख मींचे,
घास चुप है, काश चुप है
मूक शाल, पलाश चुप है;
बन सके तो धँसो इनमें,
धँस न पाती हवा जिनमें,
saraswati vandana :: निराला
प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव भारत में भर दे।
काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे।
नव गति नव लय ताल छंद नव
नवल कंठ नव जलद मन्द्र रव
नव नभ के नव विहग वृंद को,
नव पर नव स्वर दे।
Monday, March 23, 2009
मैं ज्ञानानंद स्वभावी हूँ ::( ये शायद "मेरी भावना" है , ठीक से याद नहीं )
मैं अरस अरूपी अस्पर्शी , पर से कुछ भी सम्बन्ध नहीं
मैं ही मेरा करता धरता , पर का मुझे में कुछ काम नहीं
मैं मुझे में रहने वाला हूँ, पर में मेरा विश्राम नहीं
मैं हूँ अखंड चैतन्य पिंड , निज रस में रमने वाला हूँ
मैं रंग राग से भिन्न , भेद से भी मैं भिन्न निराला हूँ
मैं शुद्ध बुद्ध , अविरुद्ध पर परिणति से अप्रभावी हूँ
आत्मानुभूति से प्राप्त तत्त्व , मैं ज्ञानानंद स्वभावी हूँ
यह दिया बुझे नहीं :: गोपाल सिंह नेपाली
घोर अंधकार हो¸चल रही बयार हो¸
आज द्वार–द्वार पर यह दिया बुझे नहीं
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है।
शक्ति का दिया हुआ¸शक्ति को दिया हुआ¸
भक्ति से दिया हुआ¸यह स्वतंत्रता–दिया¸
रूक रही न नाव होजोर का बहाव हो¸
आज गंग–धार पर यह दिया बुझे नहीं¸
यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है।
यह अतीत कल्पना¸यह विनीत प्रार्थना¸
यह पुनीत भावना¸यह अनंत साधना¸
शांति हो¸ अशांति हो¸युद्ध¸ संधि¸ क्रांति हो¸
तीर पर¸ कछार पर¸ यह दिया बुझे नहीं¸
देश पर¸ समाज पर¸ ज्योति का वितान है।
तीन–चार फूल है¸आस–पास धूल है¸
बांस है –बबूल है¸घास के दुकूल है¸
वायु भी हिलोर दे¸फूंक दे¸ चकोर दे¸
कब्र पर मजार पर¸ यह दिया बुझे नहीं¸
यह किसी शहीद का पुण्य–प्राण दान है।
झूम–झूम बदलियाँचूम–चूम बिजलियाँ
आंधिया उठा रहींहलचलें मचा रहीं
लड़ रहा स्वदेश हो¸यातना विशेष हो¸
क्षुद्र जीत–हार पर¸ यह दिया बुझे नहीं¸
यह स्वतंत्र भावना का स्वतंत्र गान है।
हम होंगे कामयाब एक दिन :: गिरिजाकुमार माथुर
हम होंगे कामयाब एक दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम होंगे कामयाब एक दिन
होंगी शांति चारो ओर
होंगी शांति चारो ओर
होंगी शांति चारो ओर एक दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
होंगी शांति चारो ओर एक दिन
हम चलेंगे साथ-साथ
डाल हाथों में हाथ
हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन
नहीं डर किसी का आज
नहीं भय किसी का आज
नहीं डर किसी का आज के दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
नहीं डर किसी का आज के दिन
हम होंगे कामयाब एक दिन
सैरन्ध्री :: मैथिलीशरण गुप्त
सावधान हे वीर, न ऐसे वचन कहो तुम,
मन को रोको और संयमी बने रहो तुम।
है मेरा भी धर्म, उसे क्या खो सकती हूँ ?
अबला हूँ, मैं किन्तु न कुलटा हो सकती हूँ।
माना दीना हीना हूँ सही, किन्तु लोभ-लीना नहीं,
करके कुकर्म संसार में मुझको है जीना नहीं।
मौत से ठन गई! written by Atal ji , too good
मौत से ठन गई!
जूझने का मेरा इरादा न था, मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,ज़ िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ, लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?
तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ, सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।
मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र, शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं, दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।
प्यार इतना परायों से मुझको मिला, न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये, आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।
आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है, नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।
पार पाने का क़ायम मगर हौसला, देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई।
मौत से ठन गई।
i specially like these lines
मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र, शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं, दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।
wah wah
Sunday, March 22, 2009
पर्वत प्रदेश में पावस , सुमित्रानंदन पंत
अपने सहस्त्र दृग सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार
धँस गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुआँ, जल गया ताल!
यों जलद यान में विचर, विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल!
इस तरह मेरे चितेरे हृदय की
बाह्य प्रकृति बनी चमत्कृत चित्र थी,
सरल शैशव की सुखद सुधि-सी वही
बालिका मेरी मनोरम मित्र थी!
देव शास्त्र गुरु पूजा से
मुझे न मिला सुख क्षणभर भी , कंचन कामनी प्रासादों में |
मैं एकाकी एकत्व लिए, एकत्व लिए सब ही आते |
तन धन को साथी समझा था पर वो भी छोड़ चले जाते |
मेरे न हुए ये न मैं इनसे , अति भिन्न अखंड निराला हूँ|
निज में पर से अन्यत्व लिए निज समरस पीने वाला हूँ
जिसके श्रंगारों में मेरा यह महंगा जीवन धुल जाता |
अत्यंत अशुचि जड़ काया से इस चेतन का कैसा नाता |
दिन रात शुभाशुभ भावों से मेरा व्यापार चला करता
मानस वाणी और काया से आस्रव का द्वार खुला रहता
शुभ और अशुभ की ज्वाला से झुलसा है मेरा अंतस्तल
शीतल समकित किरने फूटे संवर से जगे अंतर्बल
फिर तप की शोधक व्हनी जगे, कर्मो की कडिया टूट पड़े
सर्वांग निजात्म प्रदेशों से अमृत के निर्झर फूट पड़े