संसार महादुःख सागर के , प्रभु दुखमय सुख आभासों में |
मुझे न मिला सुख क्षणभर भी , कंचन कामनी प्रासादों में |
मैं एकाकी एकत्व लिए, एकत्व लिए सब ही आते |
तन धन को साथी समझा था पर वो भी छोड़ चले जाते |
मेरे न हुए ये न मैं इनसे , अति भिन्न अखंड निराला हूँ|
निज में पर से अन्यत्व लिए निज समरस पीने वाला हूँ
जिसके श्रंगारों में मेरा यह महंगा जीवन धुल जाता |
अत्यंत अशुचि जड़ काया से इस चेतन का कैसा नाता |
दिन रात शुभाशुभ भावों से मेरा व्यापार चला करता
मानस वाणी और काया से आस्रव का द्वार खुला रहता
शुभ और अशुभ की ज्वाला से झुलसा है मेरा अंतस्तल
शीतल समकित किरने फूटे संवर से जगे अंतर्बल
फिर तप की शोधक व्हनी जगे, कर्मो की कडिया टूट पड़े
सर्वांग निजात्म प्रदेशों से अमृत के निर्झर फूट पड़े
Sunday, March 22, 2009
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