Sunday, April 26, 2009

दिनकरजी

हम दे चुके लहू हैं , तू देवता िवभा दे | 

अपने अनलिविशख से आकाश जगमगा दे ।

प्यारे स्वदेश के िहत वरदान माँगता हूँ | 

तेरी दया िवपद् में , भगवान माँगता हूँ |

Friday, April 24, 2009

ये पंक्तियाँ मेने लिखी बीमारी में

बेचैन सा कभी टहलता हूँ कभी लेट जाता हूँ
आज जीवन को कुछ और सोचता हूँ
कोई उत्तर नहीं पाता हूँ
फिर से बेचैन हो जाता हूँ

लेट जाता हूँ , शिथिलता में , पर नींद नहीं आती
मन कहता है कर्म कर और आलस्यता चली जाती

तिमिर है , एकांत है शरीर भी अस्वस्थ है
किन्तु मस्तिष्क वाह रे तू उतना ही सजग है

हाथ नहीं उठ रहे, पैर नहीं चल रहे
मन में नए विचारो के धागे जाल बुन रहे
कुटुंब-समाज-कर्म के दायित्व मुझे अशांत कर रहे
धर्म के सन्देश वहीं मुझे शांत कर रहे
तथा ताप और शिथिलता परेशान कर रहे

विचित्र अवस्था है , लिखने बैठा हूँ
जीवन को समझने का प्रयास करता हूँ
कोई उत्तर नहीं पाता हूँ
फिर से बेचैन हो जाता हूँ

- अमित सिंघई 

माखनलाल चतुर्वेदी

उषा महावर तुझे लगाती , संध्या शोभा वारे
रानी रजनी पल-पल , दीपक से आरती उतारे
भवन भवन तेरा मंदिर है , स्वर है श्रम की वाणी
राज रही कालरात्रि को उज्जवल कर कल्याणी
तू ही जगत की जय है,तू है बुद्धिमयी वरदात्री
तू धात्री , तू भू-नभ गात्री, सूझ बूझ निर्मात्री

Friday, April 17, 2009

सुरपति ले अपने शीश , जगत के ईश :: जन्माभिषेक आरती

सुरपति ले अपने शीश , जगत के ईश |
गए गिरिराजा, जा पांडुक शिला विराजा ||

शिल्पी कुबेर वहाँ आकर के , क्षीरोदधि का जल लाकर के |
रचिपेडी ले आए सागर का जल ताजा , तब नहुन कियो जिनराजा || सुरपति ..... ||

नीलम पन्ना वैडुरय मणि , कलशा ले करके देवगणी |
एक सहस आठ कलशा ले करके नभराजा , फ़िर नहुन कियो जिनराजा || सुरपति ..... ||

दसु योजन गहराई वाले , चहुँ योजन चौडाई वाले |
एक योजन मुख के कलश धुरे जिन माथा , नही जरा डिगे शिशु नाथा || सुरपति ..... ||

सौधर्म इन्द्र अरु इशाना , प्रभु कलश करे धर युगपाना
अरु सनंत कुमार, महेंद्र दोए सुरराजा सिर चंवर धुरावे साजा || सुरपति ..... ||

फ़िर शेष दिविज जयकार किया , इन्द्राणी प्रभु तन पोंछ लिया
शुभ तिलक दृगंजन शचि कियो शिशुराजा, नानाभुषण से साजा || सुरपति ..... ||

ऐरावत पुनि प्रभु लाकर के , माता की गोद बिठा करके
अति अचरज तांडव नृत्य कियो दिविराजा , स्तुति करके जिनराजा|| सुरपति ..... ||

चाहत मन मुन्ना लाल शरण , वसु करम जाल दुःख दूर करन
शुभ आशीषमय वरदान देहु जिनराजा , मम नहुन होए गिरिराजा || सुरपति ..... ||
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गिरिराजा == सुमेरु पर्वत , सुरराजा == दिविराजा == इन्द्र , रचि/शचि == इन्द्र की पत्नी [not sure ]
क्षीरोदधि == वो समुद्र जहा पानी नहीं क्षीर होता है , पुनि == पीठ

Thursday, April 16, 2009

कृष्ण की चेतावनी :: रामधारी सिंह दिनकर जी

हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।

‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

प्यारे भारत देश से कुछ पद्य :: माखनलाल चतुर्वेदी

तेरे पर्वत शिखर कि नभ को भू के मौन इशारे
तेरे वन जग उठे पवन से हरित इरादे प्यारे!
राम-कृष्ण के लीलालय में उठे बुद्ध की वाणी
काबा से कैलाश तलक उमड़ी कविता कल्याणी
बातें करे दिनेश प्यारे भारत देश।।

वह बज उठी बासुँरी यमुना तट से धीरे-धीरे
उठ आई यह भरत-मेदिनी, शीतल मन्द समीरे
बोल रहा इतिहास, देश सोये रहस्य है खोल रहा
जय प्रयत्न, जिन पर आन्दोलित-जग हँस-हँस जय बोल रहा,

जय-जय अमित अशेष , प्यारे भारत देश।।

हम दीवानों की क्या हस्ती -----भगवतीचरण वर्मा

हम भिखमंगों की दुनिया में ,
स्वछन्द लुटाकर प्यार चले |
हम एक निशानी उर पर ,
ले असफलता का भार चले|

हम मान रहित, अपमान रहित,
जी भर कर खुलकर खेल चुके |
हम हँसते हँसते आज यहाँ ,
प्राणों की बाजी हार चले |

अब अपना और पराया क्या,
आबाद रहें रुकने वाले
हम स्वयं बंधे थे, और स्वयं,
हम अपने बन्धन तोड़ चले

Wednesday, April 15, 2009

आकस्मिक पंक्तियाँ


उंगलियाँ हमारी हैं , शिल्प तुम्ही हो
लेखनी हमारी है , मस्तिष्क में प्रवाहित तुम्ही हो
कर्म हमारा है, सौभाग्य तुम्ही हो
मात्र प्रदर्शन हमारा है , प्रेरणा तुम्ही हो
जीवन हमारा है , ख़ुशी तुम्ही हो

Monday, April 13, 2009

कुछ और भी दूं

मन समर्पित तन समर्पित और यह जीवन समर्पित ,
चाहता हूं मातॄ - भू तुझको अभी कुछ और भी दूं ||

मां तुम्हारा ऋण बहुत है , मै अकिंचन ,
किन्तु इतना कर रहा फ़िर भी निवेदन |
थाल मे सजा कर लाऊं भाल जब ,
स्वीकार कर लेना दयाकर यह समर्पण |

गान अर्पित , प्राण अर्पित रक्त का कण कण समर्पित ,
मन समर्पित , तन समर्पित और यह जीवन समर्पित ||

Sunday, April 12, 2009

भक्तामर स्त्रोत्र से

तीन लोक के दुःख हरण करने वाले हे तुम्हें नमन !
भूमंडल के निर्मल भूषण, आदि जिनेश्वर तुम्हें नमन !!
हो त्रिभुवन के अखिलेश्वर ,प्रभु तुमको बारम्बार नमन !!!
भवसागर के शोषक पोषक , भव्य जनों के तुम्हें नमन !!!!

नौका विहार :: सुमित्रा नंदन पन्त

शांत स्निग्ध ज्योत्स्ना उज्जवल
अपलक अनंत नीरव भूतल
सैकत शैय्या पर दुग्ध धवल
तन्वंगी गंगा ग्रीष्म विरल
लेती है श्रांत क्लांत निश्छल

तापस बाला गंगा निर्मल
शशि मुख से दीपित मृदु करतल
लहरे उर पर कोमल कन्तुल

साडी की सिकुडन सी जिस पर
शशि की रेशमा विभा से भर
सिमटी है वर्तुल मृदुल लहर

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

आँख का आँसू ढलकता देखकर
जी तड़प कर के हमारा रह गया
क्या गया मोती किसी का है बिखर
या हुआ पैदा रतन कोई नया ?

Sunday, April 5, 2009

siddha pooja se

तेरा प्रासाद महकता प्रभु अति दिव्य दशांगी धूपों से
अतएव निकट नहीं आ पाते कर्मो के कीट पतंग अरे
यह धूप सुरभि निर्झरनी मेरा पर्यावरण विशुद्ध हुआ
छट गया योग निद्रा में प्रभु सर्वांग अमीय है बरस रहा

Friday, April 3, 2009

जय जय हे त्रिशलानंदन....

बन कुण्डलपुर का राजकुंवर , सिद्धार्थ के घर तू आया रे
धनपति ने पंद्रह माह वहाँ , रत्नों का कोष लुटाया रे
क्या कोई रत्नों को मांगे ,रत्नत्रय ज्योत के आगे
सारे रत्न लजा रहे , महावीरा हम तेरी आरती गा रहे

[रत्नत्रय = सम्यक दर्शन , सम्यक ज्ञान , सम्यक चारित्र ]