Saturday, March 28, 2009

ईशावास्य उपनिषद

अज्ञान तम आवृत्त विविध बहु लोक योनि जन्म हैं,
जो भोग विषयासक्त, वे बहु जन्म लेते, निम्न हैं।
पुनरापि जनम मरण के दुख से, दुखित वे अतिशय रहें,
जग, जन्म, दुख, दारुण, व्यथा, व्याकुल, व्यथित होकर सहें॥

षय क्षणिक, क्षण, क्षय माण, क्षण भंगुर जगत से विरक्ति हो,
यही ज्ञान का है यथार्थ रूप कि, ब्रह्म से बस भक्ति हो।
कर्तव्य कर्म प्रधान, पहल की भावना, निःशेष हो,
यही धीर पुरुषों के वचन, यही कर्म रूप विशेष हो

Thursday, March 26, 2009

Tandav Stotra :: Great Ravan

धराधरेन्द्रनन्िदनीिवलासबन्धुबन्धुर
स्फुरद्िदगन्तसन्तितप्रमोदमानमानसे |
कृपाकटाक्षधोरणीिनरुद्धदुर्धरापिद
क्विचद्िदगम्बरे मनो िवनोदमेतु वस्तुिन

वरदान माँगूँगा नहीं :: शिवमंगल सिंह सुमन

विराम एक हार है, जीवन महासंग्राम है
तिल-तिल मिटूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।'

लघुता न अब मेरी छुओ, तुम हो महान बने रहो
अपने हृदय की वेदना मैं व्‍यर्थ त्‍यागूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।

चाहे हृदय को ताप दो, चाहे मुझे अभिशप दो
कुछ भी करो कर्तव्‍य पथ से किंतु भागूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।

Tuesday, March 24, 2009

हिमाद्रि तुंग शृंग से :: जयशंकर प्रसाद

हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती

अर्मत्य वीर पुत्र हो दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो
प्रशस्त पुण्य पंथ है बढ़े चलो बढ़े चलो!

असंख्य कीर्ति रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के रुको न शूर साहसी

अराति सैन्य सिंधु में सुबाड़वाग्नि से जलो
प्रवीर हो जयी बनो बढ़े चलो बढ़े चलो!

सतपुड़ा के जंगल :: भवानी प्रसाद मिश्र

However there are no Jungle left but still... :-)

मकड़ियों के जाल मुँह पर,
और सिर के बाल मुँह पर,
मच्छरों के दंश वाले,
दाग काले-लाल मुँह पर,
वात झंझा वहन करते,
चलो इतना सहन करते,
कष्ट से ये सने जंगल,
नींद में डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल।

झाड़ ऊँचे और नीचे
चुप खड़े हैं आँख मींचे,
घास चुप है, काश चुप है
मूक शाल, पलाश चुप है;
बन सके तो धँसो इनमें,
धँस न पाती हवा जिनमें,

जिनवाणी स्तुति

saraswati vandana :: निराला

वर दे, वीणावादिनि वर दे।
प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव भारत में भर दे।

काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे।

नव गति नव लय ताल छंद नव
नवल कंठ नव जलद मन्द्र रव
नव नभ के नव विहग वृंद को,
नव पर नव स्वर दे।

Monday, March 23, 2009

मैं ज्ञानानंद स्वभावी हूँ ::( ये शायद "मेरी भावना" है , ठीक से याद नहीं )

मैं हूँ अपने में स्वयं पूर्ण , पर की मुझमे कुछ गंध नहीं
मैं अरस अरूपी अस्पर्शी , पर से कुछ भी सम्बन्ध नहीं
मैं ही मेरा करता धरता , पर का मुझे में कुछ काम नहीं
मैं मुझे में रहने वाला हूँ, पर में मेरा विश्राम नहीं
मैं हूँ अखंड चैतन्य पिंड , निज रस में रमने वाला हूँ
मैं रंग राग से भिन्न , भेद से भी मैं भिन्न निराला हूँ
मैं शुद्ध बुद्ध , अविरुद्ध पर परिणति से अप्रभावी हूँ
आत्मानुभूति से प्राप्त तत्त्व , मैं ज्ञानानंद स्वभावी हूँ

यह दिया बुझे नहीं :: गोपाल सिंह नेपाली

this poem was in our course

घोर अंधकार हो¸चल रही बयार हो¸
आज द्वार–द्वार पर यह दिया बुझे नहीं
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है।
शक्ति का दिया हुआ¸शक्ति को दिया हुआ¸
भक्ति से दिया हुआ¸यह स्वतंत्रता–दिया¸
रूक रही न नाव होजोर का बहाव हो¸
आज गंग–धार पर यह दिया बुझे नहीं¸
यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है।

यह अतीत कल्पना¸यह विनीत प्रार्थना¸
यह पुनीत भावना¸यह अनंत साधना¸
शांति हो¸ अशांति हो¸युद्ध¸ संधि¸ क्रांति हो¸
तीर पर¸ कछार पर¸ यह दिया बुझे नहीं¸
देश पर¸ समाज पर¸ ज्योति का वितान है।

तीन–चार फूल है¸आस–पास धूल है¸
बांस है –बबूल है¸घास के दुकूल है¸
वायु भी हिलोर दे¸फूंक दे¸ चकोर दे¸
कब्र पर मजार पर¸ यह दिया बुझे नहीं¸
यह किसी शहीद का पुण्य–प्राण दान है।

झूम–झूम बदलियाँचूम–चूम बिजलियाँ
आंधिया उठा रहींहलचलें मचा रहीं
लड़ रहा स्वदेश हो¸यातना विशेष हो¸
क्षुद्र जीत–हार पर¸ यह दिया बुझे नहीं¸
यह स्वतंत्र भावना का स्वतंत्र गान है।

हम होंगे कामयाब एक दिन :: गिरिजाकुमार माथुर

होंगे कामयाब, होंगे कामयाब
हम होंगे कामयाब एक दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम होंगे कामयाब एक दिन

होंगी शांति चारो ओर
होंगी शांति चारो ओर
होंगी शांति चारो ओर एक दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
होंगी शांति चारो ओर एक दिन

हम चलेंगे साथ-साथ
डाल हाथों में हाथ
हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन

नहीं डर किसी का आज
नहीं भय किसी का आज
नहीं डर किसी का आज के दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
नहीं डर किसी का आज के दिन

हम होंगे कामयाब एक दिन

सैरन्ध्री :: मैथिलीशरण गुप्त

A reply by Panchaali to Keechak, who was finally killed by Bheem, due to his bad character

सावधान हे वीर, न ऐसे वचन कहो तुम,
मन को रोको और संयमी बने रहो तुम।
है मेरा भी धर्म, उसे क्या खो सकती हूँ ?
अबला हूँ, मैं किन्तु न कुलटा हो सकती हूँ।
माना दीना हीना हूँ सही, किन्तु लोभ-लीना नहीं,
करके कुकर्म संसार में मुझको है जीना नहीं।

मौत से ठन गई! written by Atal ji , too good

ठन गई!
मौत से ठन गई!
जूझने का मेरा इरादा न था, मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,ज़ िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ, लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?
तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ, सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।
मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र, शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं, दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।
प्यार इतना परायों से मुझको मिला, न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये, आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।
आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है, नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।
पार पाने का क़ायम मगर हौसला, देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई।
मौत से ठन गई।

i specially like these lines
मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र, शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं, दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।
wah wah

Sunday, March 22, 2009

पर्वत प्रदेश में पावस , सुमित्रानंदन पंत

मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्त्र दृग सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार

धँस गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुआँ, जल गया ताल!
यों जलद यान में विचर, विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल!

इस तरह मेरे चितेरे हृदय की
बाह्य प्रकृति बनी चमत्कृत चित्र थी,
सरल शैशव की सुखद सुधि-सी वही
बालिका मेरी मनोरम मित्र थी!

देव शास्त्र गुरु पूजा से

संसार महादुःख सागर के , प्रभु दुखमय सुख आभासों में |
मुझे न मिला सुख क्षणभर भी , कंचन कामनी प्रासादों में |
मैं एकाकी एकत्व लिए, एकत्व लिए सब ही आते |
तन धन को साथी समझा था पर वो भी छोड़ चले जाते |
मेरे न हुए ये न मैं इनसे , अति भिन्न अखंड निराला हूँ|
निज में पर से अन्यत्व लिए निज समरस पीने वाला हूँ
जिसके श्रंगारों में मेरा यह महंगा जीवन धुल जाता |
अत्यंत अशुचि जड़ काया से इस चेतन का कैसा नाता |
दिन रात शुभाशुभ भावों से मेरा व्यापार चला करता
मानस वाणी और काया से आस्रव का द्वार खुला रहता
शुभ और अशुभ की ज्वाला से झुलसा है मेरा अंतस्तल
शीतल समकित किरने फूटे संवर से जगे अंतर्बल
फिर तप की शोधक व्हनी जगे, कर्मो की कडिया टूट पड़े
सर्वांग निजात्म प्रदेशों से अमृत के निर्झर फूट पड़े

Friday, March 20, 2009

Jaag tujhko door jana

A very motivative poem by Sushri Mahadevi Verma

Thursday, March 19, 2009

From Kamayani By Jay Shankar Prasad Ji

Aasha Sarg se

देव न थे हम और न ये हैं, सब परिवर्तन के पुतले,
हाँ कि गर्व-रथ में तुरंग-सा, जितना जो चाहे जुत ले।"

जीवन-जीवन की पुकार है खेल रहा है शीतल-दाह-
किसके चरणों में नत होता नव-प्रभात का शुभ उत्साह।

मैं हूँ, यह वरदान सदृश क्यों ,लगा गूँजने कानों में!
मैं भी कहने लगा, 'मैं रहूँ', शाश्वत नभ के गानों में।

उस असीम नीले अंचल में, देख किसी की मृदु मुसक्यान,
मानों हँसी हिमालय की है, फूट चली करती कल गान।

Few Stanzas from Siddh Pooja

These stanzas have been taken from Siddha Pooja by Jugal Kishore ji


मैं महा मान से क्षत विक्षत ,हूँ खंड खंड लोकांत विभो
मेरे मिटटी के जीवन में , प्रभु अक्षत की गरिमा भर दो ,
प्रभु अक्षत की गरिमा भर दो

विज्ञान नगर के वैज्ञानिक , तेरी प्रयोगशाला विस्मय
कैवल्य कला में उमड़ पड़ा , संपूर्ण विश्व का ही वैभव
पर तुम तो उससे अति विरक्त , नित निरखा करते निज निधियां
अतएव प्रतीक प्रदीप लिए , मैं मना रहा दीपावलियाँ

Few Lines from Panchvati

It is very difficult to say which stanza is better than other in entire Panchvati by Shri. Maithilisharan Gupt 
   Here are a few I would like to add into blog  
  

Description of how Lakshman ji is looking while guarding the hut.




One of the conversations between Lakshman ji and Soorpanakha