Friday, April 24, 2009

ये पंक्तियाँ मेने लिखी बीमारी में

बेचैन सा कभी टहलता हूँ कभी लेट जाता हूँ
आज जीवन को कुछ और सोचता हूँ
कोई उत्तर नहीं पाता हूँ
फिर से बेचैन हो जाता हूँ

लेट जाता हूँ , शिथिलता में , पर नींद नहीं आती
मन कहता है कर्म कर और आलस्यता चली जाती

तिमिर है , एकांत है शरीर भी अस्वस्थ है
किन्तु मस्तिष्क वाह रे तू उतना ही सजग है

हाथ नहीं उठ रहे, पैर नहीं चल रहे
मन में नए विचारो के धागे जाल बुन रहे
कुटुंब-समाज-कर्म के दायित्व मुझे अशांत कर रहे
धर्म के सन्देश वहीं मुझे शांत कर रहे
तथा ताप और शिथिलता परेशान कर रहे

विचित्र अवस्था है , लिखने बैठा हूँ
जीवन को समझने का प्रयास करता हूँ
कोई उत्तर नहीं पाता हूँ
फिर से बेचैन हो जाता हूँ

- अमित सिंघई 

5 comments:

Vivek Raj Verma said...

bahut achche mere dost...but itni hindi ab aati nahi mujhe.

Amit Singhai said...

कोई बात नहीं , लकिन इस कविता को पड़ने के बाद अच्छे से अच्छा दुखी आदमी भी खुश हो जायेगा कि , मुझसे भी दुखी कोई है

Unknown said...

are yaar tune to dil kush kar diya....bahut achchi hai yah kavita...apne dil ka hal darsha diya hai....

Unknown said...

ये पढ़ने के बाद सही में.. I am proud of you..
सही में बहुत अछ्छा लिखा है..

Amit Singhai said...

आपको बहुत बहुत धन्यवाद ...
लकिन आपका प्रोफाइल नहीं है तो आपने टिपण्णी कैसे कर ली ?