Friday, June 12, 2009

तीर्थंकर स्तुति से

वस्तु स्वभाव धर्म धारक हैं , धर्म धुरंधर नाथ महान |
ध्रुव की धुनमय धर्म प्रगट कर , वन्दित धर्मनाथ भगवान ||
राग रूप अंगारों द्वारा, दहक रहा जग का परिणाम |
किन्तु शांतिमय निज परिणति से, शोभित शांतिनाथ भगवान ||

Monday, June 8, 2009

हम बहता जल पीने वाले ...

हम बहता जल पीनेवाले
मर जाऍंगे भूखे-प्‍यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से,

स्‍वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले।

ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंचखोल
चुगते तारक-अनार के दाने।

होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सॉंसों की डोरी।

नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्‍न-भिन्‍न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं, तो
आकुल उड़ान में विघ्‍न न डालों।